त्याग
त्याग का अर्थ भावचित्त को अहं के चक्रव्यूह में उलझाना नहीं है। महर्षि महेश योगी प्रणीत ध्यान पद्धति भावातीत चेतना में योगस्थः कुरू कर्माणि होकर हमें भौतिक और आध्यात्मिक संतुष्टि समान रूप से सुनिश्चित करती है।
“त्याग” एक महान यज्ञ है और अनन्त प्राप्तियों का महान स्रोत है। जो त्याग करता है वह वास्तव में बहुत कुछ पाता है। त्यागी पुरुष प्रत्येक दशा में पूजनीय बन जाते हैं। त्याग की भावना जितनी अधिक किसी मनुष्य में होती है वह उतना ही श्रेष्ठ है ऐसा कहा गया है। श्रीमद्भागवत में सर्वपालक परमपिता परमेश्वर को प्राप्त करने के लिये बारहवें क्रम पर त्याग है। निश्चित ही त्यागी पुरुष समाज के पथप्रदर्शक होते हैं क्योंकि उनका सारा समय और जीवन परमार्थ में व्यतीत होता है। भारतीय वैदिक परम्परा में त्याग का महत्वपूर्ण स्थान है। त्याग जीवन में आत्मबल का सर्वोच्च स्रोत है क्योंकि त्याग ही हमारी चेतना में आध्यात्मिक और धार्मिक अनुभूतियों की जागृति करने वाला है। त्याग ही आत्मा को जीवन्त रखने में एक महत्वपूर्ण उत्प्रेरक का कार्य करता है। त्यागी महापुरुषों ने सदैव ही संपूर्ण प्रकृति को प्रकाशमान किया है। सच्चा सुख व शान्ति त्याग करने में है न कि येन-केन प्रकार से सदा कुछ प्राप्त कर लेने की जुगत में। श्रीमद्भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि त्याग से तत्काल शांति प्राप्त होती है और जहां शांति होती है वहीं सच्चा सुख होता है। मानव अपना दुर्लभ और महत्वपूर्ण जीवन केवल भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति में ही लगा देता है। वह अपने सीमित जीवन में असीमित वस्तुएं प्राप्त करने की इच्छा रखता है और अनमोल समय और जीवन व्यर्थ ही गँवा देता है। भगवान ने कहा है कि सब कुछ त्याग कर जो मेरे पास आता है वही मुझे प्राप्त करता है। सांसारिक तृष्णा मानव मन पर इतनी अधिक बलवती होती है कि वह मन की शांति को समाप्त कर बेचैनी उत्पन्न कर देती है। मनुष्य जीवन को सुखमय बनाने के लिये प्राप्ति की इच्छा करता है किन्तु उस प्राप्ति के साथ अनेक दुःखकारक समस्यायें भी प्राप्त कर लेता है। जीवन के लिये जो मूलभूत आवश्यकताएं होती हैं उनकी पूर्ति तो प्रकृति स्वयं करती है, वह भी मानव के बिना किसी प्रयास के। यह विचारणीय है कि जब हमारे जीवन को संतुलित रखने के लिये ईश्वर प्रयासरत है, प्रकृति कार्यरत है, प्रभु ने ही हमें जन्म दिया और वही पालनकर्ता भी है तो क्यों न हम उस परमपिता परमेश्वर के दिखाये मार्ग पर चलें और ऐेसे कार्य करें कि उनकी प्राप्ति हो और उनकी कृपा हम पर सदा बनी रहे। हम जितना प्रकृति का पोषण करेंगे, जितना अधिक प्रकृति के नियमों का पालन करेंगे, उतना अधिक हम प्रकृति पोषित होंगे। ईश्वर अनुभूति करते हुए समाज में उच्च मापदण्ड स्थापित करने के लिये त्याग की भावना को अंगीकार करना आवश्यक है। त्याग का अर्थ उस नकारात्मक भावधरा को चित्त में स्थान नहीं देना है जो भाव चित्त को अहं के चक्रव्यूह में उलझा दे। जब तक अहं का त्याग नहीं होगा तब तक जीवन को त्याग के पथ पर लाना संभव ही नहीं है और उपलब्ध्यिं तो दूर की बात हैं। त्याग एक अलौकिक शक्ति का द्योतक है। देव भूमि भारत में त्याग की अनुपम परंपरा प्राचीन है। आसक्ति से बिरत् हो जाने वाले महापुरुषों का पूजन किया जाता है। राजा हरिश्चन्द्र का उदाहरण, भगवान राम के क्षणिक विलम्ब किये बिना ही अयोध्या का त्याग कर वनगमन को जाना, ऋषि दधीचि का परहित में देह त्याग आदि भारतीय शाश्वत् धनी वैदिक परंपरा के गौरवान्वित कर देने वाले उदाहरण हैं। सामान्य जीवन से महानता की ओर बढने का विचार और इसका प्रयास मानव को रोक देता है और वह स्वयं पर विश्वास ही नहीं कर पाता कि वह भी त्याग कर सकता है। वह सांसारिक जीवन को ही यथार्थ मानकर उसमें रमा रहता है। बहुतों को त्याग शब्द से भय लगता है। उन्हें यह नहीं मालूम कि त्याग है क्या ? त्याग का अर्थ अपने माता-पिता, पति या पत्नी, भाई-बहन, परिवार, घर को छोड़कर हिमालय जा कर एक पैर से या शीर्षासन लगाकर कठिन तपस्या करना नहीं है। त्याग का अर्थ है मोह, माया, क्रोध, लोभ, छल, कपट, दुराभाव, दुराचरण, असत्य, चौर्यकर्म, अपराध, बैर, चिन्ता, घृणा आदि स्वयं के लिये हानिकारक भावों और आदतों को छोड़कर सात्विक, सदाचारी, मैत्रीमय, करुणामय, प्रेममय सामाजिक जीवन व्यतीत करना। यह सत्य है कि कुछ भी छोड़कर देने की कल्पना करना ही कठिन होता है। इसीलिये तो हमारी वैदिक परम्परा के ऋषि-मुनियों ने ऐसे सरल विधान दे दिये हैं कि कुछ छोड़ने के संकल्प या प्रयत्न के बिना ही प्रकृति के नियमानुसार जीवन के लिये जो आवश्यक हो वह रह जाये और अनावश्यक स्वयंमेव ही छूट जाये। आपकी इसी अत्यंत कठिन यात्रा त्याग का मार्ग आप सभी के लिये अत्यंत ही सरल हो सकता है। परमपूज्य महर्षि महेश योगी जी द्वारा प्रतिपादित ‘‘भावातीत ध्यान” के नियमित अभ्यास से भावातीत ध्यान योग की शैली हमारी इस जीवन यात्रा को अत्यन्त सरल, सहज और आनन्दित कर देती है। भावातीत की चेतना में स्थित होकर- ‘योगस्थः कुरु कर्माणि’ होकर-‘स्थितप्रज्ञ’ होकर हम स्वाभाविक कर्म करते हैं। इस कलयुग में मात्र भावातीत ध्यान का नित्य अभ्यास ही एक ऐसा सरलतम उपाय है जो सुखी जीवन का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। बिना त्याग किये ही चेतना के अव्यक्त स्तर पर समस्त प्राप्तियां हो सकती हैं और व्यक्त भौतिक जीवन पूर्ण संतुष्टि के साथ व्यतीत हो सकता है।
ब्रह्मचारी गिरीश
कुलाधिपति, महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय
एवं महानिदेशक, महर्षि विश्व शांति की वैश्विक राजधानी
भारत का ब्रह्मस्थान, करौंदी, जिला कटनी (पूर्व में जबलपुर), मध्य प्रदेश
Comments