संतोषी सदा सुखी
क्रिया-सिद्धि सत्व के द्वारा होती है उपकरणों के द्वारा नहीं। भारतीय सनातनसन्तों का मत है कि भगवान की कृपा के बिना कुछ भी संभव नहीं है और भगवानकी कृपा से कुछ भी असंभव नहीं है। भगवान को प्रसन्न किये बिना उनका कृपापात्रहोना भी संभव नहीं है। श्रीमद्भागवत में भगवान को प्रसन्न करने वाले 30 लक्षणोंमें एक गुण ‘संतोष’ भी है।
संतोष मूलं हि सुखम् (मनुः4.१2) अर्थात् सुख का मूलसंतोष है। ज्ञान, बल, सामर्थ्य वसाधनों के अनुरूप कर्म करने परजो भी फल मिलता है उसी सेतृप्त हो, प्रसन्नचित्त रहना ही‘संतोष’ है। संतोष एक ऐसी अवधारणा हैजिसमें हमारा चित्त स्थिर होजाए तो एक अनूठे आनंद के रसस्त्रोत का पूरा अनुभूत होता है। यह एक स्वभाव है जो सदैव आनन्दित रहता है औरअपने चारों ओर आनन्द ही आनन्द देखता है। किसी को आनन्दित देख हम सब भीस्वयं को आनन्दित महसूस करते हैं। यह मानवीय जीवन का आवश्यक तत्व है,एक सामाजिक व्यवस्था का मूल है कि यदि हम मानव हैं तो दूसरे मानव का सुख-दुःख समझें व बाँटे क्योंकि हम सभी ने हमारे पूर्वजों से अनेकानेक बार सुना है औरनिश्चित ही अनुभव भी किया है कि दुःख बाँटने से कम होता है और प्रसन्नताबाँटने से बढ़ती है। आज की तथाकथित आधुनिक जीवन शैली ने मानवीय जीवनको प्रतिस्पर्धात्मक बना दिया है। आज के युग में हम स्वयं के दुःख से दुःखी नहीं हैंजबकि पड़ोसी की प्रसन्नता देख दुःखी हो जाते हैं और उसी पड़ोसी को कष्ट मेंदुःखी देख हमारा हृदय असीम प्रसन्नता से गोते लगाने लगता है। क्या हो गया हैहमें? क्या यही है भारतीय सनातन वैदिक परंपरा जो हमें वसुधैव कुटुम्बकम कापाठ पढ़ाया करती है, जो स्वयं में सुखी या प्रसन्नता को खोजने को कहती है औरस्वयं की प्रसन्नता को समस्त दिशाओं में प्रसारित करने का आव्हान करती है?हमारी संस्कृति हमें सदैव नाशवान प्रतिस्पर्धा से दूर रहने का संदेश देती है। जीवनचलने के लिये प्रगति व संसाधन आवश्यक हैं। प्रगति मानव का स्वभाव है, धर्म हैकिंतु संसाधनों की अत्यधिक महत्वाकाँक्षा और संचय ही असंतोष का परिणाम है।जब ईश्वर के द्वारा प्रदत्त हमारा यह शरीर ही नाशवान है तो स्थायित्व किये वस्तुमें कहाँ है? वह हमारे मन में होना चाहिए। सहसा ही एक प्रसंग याद आ रहा है जोकि राजा भोज के जीवन से संबंधित है। राजा भोज सम्पूर्ण व्यक्तित्व के धनी थे।अपनी व राज्य की मूलभूत आवश्यकताओं के पश्चात् जो धन बचता था उसेसर्वजन हिताय व सर्वजन सुखाय के लिये व्यय करते थे। किंतु उनके प्रजाहितैषीकार्यों से उनका कोषाध्यक्ष सदैव चिंतित व भयभीत रहता था। उसे लगता था, राजाभोज को कुछ धन विपत्तिकाल के लिये भी सुरक्षित रखना चाहिए अतः उसने एकपत्र राजा भोज को लिखा कि- आपदार्थे धनं रक्षते। अर्थात् विपत्ति काल के लिये धनकी रक्षा करें। जब राजा भोज को यह पत्र मिला तो उन्होंने उसी पत्र पर - श्रीमंताआपदः कुतः अर्थात् उदार लोगों को विपत्ति नहीं आती लिखा और कोषाध्यक्ष कोभेज दिया। जब वह पत्र कोषाध्यक्ष को मिला तो उसने पुनः उस पत्र पर - कदाचित्कुप्यते देवः अर्थात् कभी देवता रूठ गये तो लिख राजा को पुनः प्रेषित किया अन्तःराजा ने उस पत्र पर लिखा-संचितोअपि विनश्यति-अर्थात् यदि भाग्य ही रूठ गयातो, जो संचित धन है उसका भी नाश होना तय है। अन्ततः भविष्य के लिये वर्तमानकी उपेक्षा करना निरर्थक है। हमें सदैव अपने जीवन में राजा भोज की तरह जीवनके प्रति सकारात्मक पक्ष को धारण करना होगा इस प्रकार हमारा मन संतोष केकोष से भर जायेगा और हम प्रसन्नचित्त हो अपना जीवन जी सकेंगे। किसीविचारक ने लिखा है -
गोधन, गजधन, बाजधन और रतन धन खान।
जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान ।।
शास्त्रों ने एक बात अतिउत्तम कही है -क्रिया सिद्धिः सत्वे भवति महताम् नोपकरणे क्रिया की सिद्धि सत्व के द्वारा होती है, उपकरणों के द्वारा नहीं। अर्थात् यदिहमारे मन में, हमारी चेतना में, हमारी आत्मा में पर्याप्त सत्व है तो समस्तप्राप्तियाँ स्वतः ही हो जायेंगी। उपकरण होते हुए भी, साधन और संसाधन होते हुएभी यदि उसके उपयोग के लिये सत्व का आधार न हो, साधन व्यर्थ ही होते हैं।इसीलिये भारतीय परम्परा में साधन के मार्ग को अपनाकर सत्व जगाने की महत्ताबताई गई है। सत्यमेव जयते हमारे भारतवर्ष का महत्वपूर्ण वाक्य है। सत्व होगा तोसाधन स्वयं ही प्रगट होंगे, समस्त कामनाओं की पूर्ति होगी, आनंद होगा औरसंतोष तो आ ही जायेगा।
ब्रह्मचारी गिरीश
कुलाधिपति, महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालयएवं महानिदेशक, महर्षि विश्व शांति की वैश्विक राजधानीभारत का ब्रह्मस्थान, करौंदी, जिला कटनी (पूर्व में जबलपुर), मध्य प्रदेश
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