महर्षि कहते थे कि जब तक मानव के हृदय में अनुचित तृष्णा ने अपना स्थान बना रखा है तब तक उसे ज्ञान-विज्ञान के प्रकाश का मूल्य नहीं होगा और वह अन्धकारमय जीवन ही जीता रहेगा। सभी लोग आँखों पर अवचेतन की पट्टी बांधे शांति चाहते हैं। यह तृष्णा ठीक वैसी ही है जैसी एक कस्तुरी मृग भी अपनी नाभि से आ रही सुगंध को वन में खोजना चाहता है। वह इस सत्य से अनभिज्ञ है कि वह सुगंध तो उसकी नाभि से आ रही तो वह वन में भटक-भटक कर अपनी अवचेतना को ही प्रस्तुत करता है। ठीक उसी प्रकार मानव के भीतर ही समस्त सुख विद्यमान हैं। वह इस भौतिक जगत क्षणिक सुखों की अनुभूति अवश्य करा सकता है परंतु अक्षय आनंद की प्राप्ति नहीं। यह क्षणभंगुर सुख मानव के सुखों की अनवरत इच्छाओं को जागृत कर जाता है और मन इच्छाओं के इस जाल में फसता चला जाता है। मनुष्य का हृदय बाहरी सुख, दुख, यश, अपयश और निंदा और प्रशंसा की धूप-छांव से प्रभावित होता है और कभी भी परमआनंद की अनुभूति नहीं कर पाता। इसके ठीक विपरीत ‘‘भावातीत ध्यान” का साधक निंदा व प्रशंसा के भाव से अछुता रहकर परमआनंद का शरण में चला जाता है। एक पर्वत पर एक संत रहते थे। एक दिन एक भक्त आया और बोला-महात्मा जी, मुझे तीर्थयात्रा के लिए जाना है। मेरी यह स्वर्ण मुद्रओं की थैली अपने पास रख लीजिए। संत ने कहा-भाई, हमें इस धन-दौलत से क्या मतलब! भक्त बोला-महाराज, आपके सिवाय मुझे और कोई सुरक्षित एवं विश्वसनीय नहीं दिखता। कृपया इसे यहीं कहीं रख लीजिए। यह सुनकर संत बोले-ठीक है, यहीं इसे गडा खोदकर रख दो। भक्त ने वैसा ही किया और तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़ा। लौटकर आया तो महात्मा जी से अपनी थैली मांगी। महात्मा जी ने कहा-जहां तुमने रखी थी, वहीं से खोदकर निकाल लो। भक्त ने थैली निकाल ली। प्रसन्न होकर भक्त ने संत का बहुत गुणगान किया लेकिन संत पर प्रशंसा का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। भक्त घर पहुंचा। उसने पत्नी को थैली दी और नहाने चला गया। पत्नी ने पति के लौटने की खुशी में लड्डू बनाने का निर्णय किया। उसने थैली में से एक स्वर्णमुद्रा निकाली और लड्डू के लिए आवश्यक सामग्री बाजार से मंगवा ली। भक्त जब स्नान करके लौटा तो उसने स्वर्ण मुद्राएं गिनीं। एक स्वर्ण मुद्रा कम पाकर वह सन्न रह गया। उसे लगा कि अवश्य ही संत ने एक मुद्रा निकाल ली है। वह तेजी से आश्रम की ओर भागा। वहां पहुंचकर उसने संत को भला-बुरा कहना प्रारंभ कर किया- अरे ओ पाखंडी! मैं तो तुम्हें पहुंचा हुआ संत समझता था पर स्वर्ण मुद्रा देखकर तेरी भी नीयत खराब हो गई। संत ने कोई उत्तर नहीं दिया। तभी उसकी पत्नी वहां पहुंची। उसने बताया कि मुद्रा उसने निकाल ली थी। यह सुनकर भक्त लज्जित होकर संत के चरणों पर गिर गया। उसने रोते हुए कहा-मुझे क्षमा कर दें। मैंने आपको क्या-क्या कह दिया। संत ने दोनों मुट्ठियों में धूल लेकर कहा-ये है प्रशंसा और ये है निंदा। दोनों मेरे लिए धूल के बराबर हैं। यदि हृदय को सच्चे आनंद की अनुभूति कराना है तो निंदा व प्रशंसा के प्रति समभाव उत्पन्न करना होगा और निंदा व प्रशंसा की क्षणभंगुरता का ज्ञान प्राप्त करना होगा और उस मार्ग पर चलना होगा जहां हम इन कारकों का त्याग कर स्वयं अपने शरीर के भीतर अपनी आत्मा से सुख प्राप्त करें, स्वयं से साक्षात्कार करें और अपने मस्तिष्क, मन व शरीर को लयबद्ध करें। जब हमारा मन, मस्तिष्क व शरीर लयबद्ध होगा तो हमारे कर्म फलीभूत होंगे। हमारी ऊर्जा का अपव्यय नहीं होगा, विचारों में क्रमबद्धता आयेगी जिससे लक्ष्य की प्राप्ति सरल हो जायेगी और मन, मस्तिष्क और शरीर को एक लय में लाने के लिये हमें भावातीत ध्यान के मार्ग को अपनाना होगा क्योंकि भावातीत ध्यान योग शैली से मन, मस्तिष्क व शरीर में एकरूपता आती है। जब हम भावतीत ध्यान के प्रयोग से इन कारकों के प्रभाव से मुक्त होकर भीतर उतरते चले जाते हैं तब मन आनंद से भरता जाता है। हमें परमआनंद की प्राप्ति हेतु किसी व्यक्ति या वस्तु की ओर नहीं देखना होगा और हम भावातीत ध्यान के माध्यम से स्वयं में ही आनंद को पा जायेंगे।
ब्रह्मचारी गिरीश
कुलाधिपति, महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय
एवं महानिदेशक, महर्षि विश्व शांति की वैश्विक राजधानी
भारत का ब्रह्मस्थान, करौंदी, जिला कटनी (पूर्व में जबलपुर), मध्य प्रदेश
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