top of page
Search
Brahmachari Girish Ji

बाह्य इन्द्रियों का संयम - Brahmachari Girish

बाह्य इन्दियों को संयमित करने से आंतरिक शक्तियों का उन्नयन होता है। भावातीत ध्यान शैली के नियमित अभ्यास से यह प्रक्रिया स्वतः प्रारंभ हो जाती है। श्रीमद्भागवत में भगवान को प्रसन्न करने के लिए सुझाये गये तीस लक्षणों में से ‘‘बाह्य इंद्रियों का संयम” भी एक लक्षण है। जो परमपिता परमेश्वर के समीप ले जाता है। अब तक हम इस श्रृंखला में सत्य, दया, तपस्या, सोच, तितिक्षा, आत्म निरीक्षण पर चर्चा कर चुके हैं। अब अवसर है बाह्य इन्द्रियों को संयमित करने का। मानव जीवन की पांच बाह्य इन्द्रियां बोलना, देखना, सूंघना, सुनना एवं स्पर्श, मुख बोलने के लिये, आंखें देखने के लिए, नाक सूंघने के लिए, कान श्रवण करने एवं हाथ व पैर स्पर्श के अनुभव के लिए। किंतु इन सभी इंन्द्रियों का नियंत्रण मन करता है। हमारा शरीर एक रथ के समान है जिसको पांच इन्द्रियां समान गतिमान बनाए हुए हैं और मन एक सारथी के समान है जो इन बाह्य इन्द्रियों को नियंत्रण करते हुए हमें मानव बनाता है, जिस शरीर का मन अपनी बाह्य इंद्रियों को नियंत्रित नहीं कर पाता वह अपनी इन्द्रियों का दास हो जाता है। प्लेटो ने कहा है कि ‘‘मनुष्य की कामनाएं उन घोड़ों के समान हैं, जो बेकाबू हो दौड़ना चाहते हैं तथा मनुष्य को सर्वनाश के पथ पर ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। यानी मनुष्य दुर्बल हो तो इसके जीवन को बड़ा खतरा है। परंतु वह कुशल सारथी है, तो वह उन्हें नियंत्रित करेगा और सकुशल जीवन के गंतव्य को पहुंचेगा।” उपनिषदों में भी इसी समान उपमा दी गई है। जहां मानव की कामनाओं की तुलना घोड़ों से की गई है। मानव के जीवन की तीन अवस्थाएं हैं। सर्वप्रथम मनुष्य में पशुत्वभाव रहता है, जो उसे इन्द्रिय सुख के लिए प्रेरित करता है। कुछ लोग इसी अवस्था में जीते हैं। विषम सुख में भी उनका आनंद है। वह मानव होते हुए भी पशु के समान है। दूसरी अवस्था कुछ उच्चतर श्रेणी के मानव हैं। यह वह अवस्था है जब मानव सत और असत के भेद को जानने का प्रयास करता है। जो वस्तु सुन्दर दिखाई दे रही है, वह जीवन के लिए भी उतनी ही श्रेयस्कर है, इसका निर्णय करने के लिए वह स्वयं के विवेक बोध को जागृत कर लेता है तथा वे असत् का परित्याग कर, सत् के अनुसरण की चेष्टा करता है। स्वयं के ज्ञान तथा विवेक के भंडार को बढ़ाने का प्रयास करता है। अतः इस अवस्था को ‘‘मानव” कहा जाता है। तीसरी और अंतिम अवस्था है कि वह अपनी बाह्य इन्द्रियों को संपूर्ण नियंत्रण में रखते हुए उन्हें सन्मार्ग की ओर प्रवाहित करते हैं। उनकी इन्द्रियां किसी भी प्रकार पथ विमुख नहीं होती हैं। जिस मानव का मन नियंत्रित है, वह विचलित नहीं होगा और साथ ही मानसिक व शारीरिक पीड़ाओं से भी मुक्त रहेगा। जिस मानव ने अपनी बाह्य इन्द्रियों को संयमित कर लिया वह प्रयत्नशील, कार्यशील और चिंतनशील हो जाएगा। उसकी अन्तर्निहित शक्तियां अभिव्यक्त हो जाएंगी। वह संसार को जीत लेगा। जो बाह्य इन्द्रियों को संयमित कर लेगा। महर्षि महेश योगी जी ने भावातीत ध्यान योग शैली से मानव को संयमित, प्रयत्नशील, कार्यशील व चितेनशील बनाने का सरल व सुलभ मार्ग दिया है जिसके 15 से 20 मिनट के प्रातः संध्या के नियमित अभ्यास से आप स्वयं संयमित होने की ओर अग्रसर होते जाते हैं और यह नियमित अभ्यास आपकी दैनंदिनी को भी अनुशासित करता है यह आपको अपनी अन्तर्निहित शक्तियों से परिचय कराता है। मानव ही इस प्रकृति की सुन्दरतम रचना है और यही रचना इस पवित्र प्रकृति के अनुशासन को यदा-कदा तोड़ती है क्योंकि बाह्य इन्द्रियों पर उसका नियंत्रण नहीं है और जैसे कि यह नियंत्रित होंगी तो समस्त मनुष्य जाति अनुशासित होगी और महर्षि महेश योगी जी की धरती पर स्वर्ग के निर्माण की परिकल्पना पूर्ण होगी । ब्रह्मचारी गिरीश कुलाधिपति, महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय एवं महानिदेशक, महर्षि विश्व शांति की वैश्विक राजधानी भारत का ब्रह्मस्थान, करौंदी, जिला कटनी (पूर्व में जबलपुर), मध्य प्रदेश

15 views0 comments

Comments


bottom of page