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आत्म निरीक्षण - By Brahmachari Girish Ji

  • Brahmachari Girish Ji
  • Jun 15, 2019
  • 2 min read

भगवान को प्रसन्न करने के लिए श्रीमद्भागवत में तीस लक्षण बताए गए हैं। आज का विषय है आत्मनिरीक्षण। आत्मनिरीक्षण हमें स्वयं के भीतर ही तोड़-फोड़ के प्रति सचेत करता है किंतु आत्मनिरीक्षण में यथार्थ का मूल्यांकन सौ अवयव हैं जो चुनौती को स्वीकार करने की प्रेरणा देते हैं। यात्रा के दो बिंदु महत्वपूर्ण होते हैं, वहां से वह प्रारंभ हुई तथा जहां वह समाप्त हुई। किसी भी कार्य में दो बातें महत्वपूर्ण हैं, वह कैसे प्रारंभ हुआ और उसका क्या परिणाम निकला। दो प्रसिद्ध कहावतें प्रारंभ और परिणाम की ओर इशारा करती हैं, अच्छी तरह से प्रारम्भ किया कार्य आधा सफल होता है, अन्त भला तो सब भला। किसी भी ग्रंथ का प्रारंभ और संहार महत्वपूर्ण होता है। राम चरित मानस के विषय में प्रसिद्ध है- बाल आदि और उत्तर अंत, जो जाने सो पूरा संत।’ श्रीमद्भगवद् गीता का विवेचन भी हम इसी दृष्टिकोण से करेंगे। गीता का प्रारंभ होता है उस प्रश्न से संजय के पास जाता है, वह दूर तक देख सकता था। भविष्य दृष्टा था, कार्यों के परिणाम जानता था। वह ज्ञानी था इसलिये वह ज्ञानवान के पास गया। यद्यपि धृतराष्ट्र के प्रश्न से गीता का उद्गम हुआ उसने पूरी गीता सुनी पर वह जैसा पहिले था वैसा ही बाद में रहा। भगवान बुद्ध कहा करते थे निर्जीव करछुली चाहे घन्टों हलुए में पड़ी रहे और चाहे कढ़ी में, न तो उसे हलुए की मिठास लगेगी न कढ़ी की खटाई, जबकि सजीव जीभ स्पर्श होते ही मिठाई-खटाई का स्वाद जान लेगी। धृतराष्ट्र निर्जीव करछुली की तरह था जो ज्ञान गंगा में पड़ा रहने पर भी उसके स्वाद से वंचित रहा। धृतराष्ट्र का प्रश्न है ‘‘हे संजय, धर्म क्षेत्र-कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया?’’ धर्म क्षेत्र का मतलब है आध्यात्मिक क्षेत्र, कुरु क्षेत्र का अर्थ है व्यावहारिक क्षेत्र, ये दो क्षेत्र कोई अलग-अलग नहीं है। जो धर्म-क्षेत्र है वही कुरुक्षेत्र है। गीता जीवन को समग्र रूप में स्वीकार करती है। वह उसके खण्ड-खण्ड नहीं करती। साधारण लोगों की धारणा है कि धर्म की जगह धर्म है, व्यापार की जगह व्यापार। गीता आध्यात्म और व्यापार को एक सिक्के के पहलुओं के रूप में लेती है, एक गाड़ी के दो पहिये; परमपूज्य महर्षि महेश योगी गीता की बात का ही प्रतिपादन करते हैं। जब वे दो सौ प्रतिशत जीवन जीने की बात करते हैं, सौ प्रतिशत आध्यात्मिक उन्नति की परीक्षा होती है। ध्यान, पूजा-पाठ इत्यादि में तो सभी व्यक्ति कुछ न कुछ अंश शांति प्राप्त कर लेते हैं परन्तु उसकी सच्ची कसौटी तो तब है जब वही शांत अवस्था संसार के सारे कार्य करते हुए बनी रहे। आचार्य तुलसी के अनुसार नदी का प्रवाह बहता है, बह जाता है। उसी प्रवाह को रोककर बांध बना दिया जाये और उससे नहरें निकाल दी जाये तो वह अपने अस्तित्व को सार्थक कर लेती है। जनजीवन के लिए उसकी उपयोगिता बढ़ जाती है। सनद रहे हमारा प्रत्येक विचार हमारे भविष्य के निर्माण का आधार होगा क्योंकि जहां हमारी सोच जाती है हमारी शक्ति भी वहीं रहती है। ब्रह्मचारी गिरीश कुलाधिपति, महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय एवं महानिदेशक, महर्षि विश्व शांति की वैश्विक राजधानी भारत का ब्रह्मस्थान, करौंदी, जिला कटनी (पूर्व में जबलपुर), मध्य प्रदेश

 
 
 

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