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Brahmachari Girish Ji

अन्तः इन्द्रियों का संयम - By Brahmachari Girish Ji



परम पूज्य महर्षि महेश योगी सदैव कहते थे कि प्रत्येक व्यक्ति में आध्यात्मिक केन्द्र अंतरनिहित है। आवश्यकता इस सुप्त चेतना को जागृत करने की है। इसे सरल-सहज बना सकते हैं भावातीत-ध्यान के निरंतर अभ्यास से। बड़े-बड़े लक्ष्य निर्धारित करना प्रथम गुण है व्यक्तित्व का और लक्ष्य की ओर बढ़ने में साहस हमारा सहयात्री होता है। साहस उत्पन्न होता है, अन्तः इन्द्रियों के संयम से। वह कर्ण ही थे जिनका लक्ष्य था सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनना। वह चाहते तो स्वयं ही महाभारत काल के इकलौते विजेता होते, न तो सौ कौरव और न ही पांच पांडव, धनुर्धारी कर्ण का रणभूमि में सामना कर सकते थे। कर्ण ने यह शक्ति प्राप्त की थी अपनी अंतः इन्द्रियों को संयमित कर। श्रीमद् भागवत में ईश्वर को प्रसन्न करने के 30 प्रमुख लक्षणों में एक लक्षण ‘‘अंतः इन्द्रियों का संयम” भी है। जीवन का सत्य क्या है? उसका सत्य भौतिक पदार्थों का संग्रह नहीं, परन्तु उनकी सार्वभौमिक उपयोगिता है। पानी की एक बूंद तत्वों का विशिष्ठ मिश्रण नहीं, उनकी पारस्परिकता है। मूलतः द्रव्य हमारे लिए द्रव्यमान के रूप में निराकार है, जिस प्रकार हमारी आंखें फूल को देखती हैं, द्रव्य पदार्थ को नहीं। द्रव्य पदार्थों का उपयोग प्रयोगशालाओं में है, लेकिन उसकी स्वयं कोई अभिव्यक्ति नहीं होती। यह अभिव्यक्ति ही रचना है जो स्वतः अपने आप में अनंत है इसी प्रकार हमारी सभ्यता मानवता को अभिव्यक्त करने से ही अपनी पूर्णता प्राप्त करती है। भौतिक तत्वों की वृद्धि मनुष्य को शक्तिशाली होने का गर्व तो दे सकती है, किन्तु उसे जीवन का आनंद नहीं दे सकती। दिन-प्रतिदिन चीजों के विशालकाय होने से मनुष्य आतंकित हो रहा है और द्रव्य पदार्थ व उसके जीवन का अंतर बढ़ता जा रहा है, क्योंकि भौतिकता जब बहुत अधिक हो जाती है तो वे जीवन से पूर्ण रूप से संबंध अस्वीकार करने लगती है और ऐसी स्थिति में वह हमारी भयानक प्रतिद्वंदी बन जाती है। जो व्यक्ति अपनी आंतरिक इन्द्रियों को संयमित कर लेता है वह आध्यात्मिक हो जाता है और ऐसे आध्यात्मिक व्यक्ति के संकल्प उस पत्थर पर खिंची रेखा के समान होते हैं और पूर्णता को प्राप्त करते हैं। शरीर का मन से व मन का शरीर से एक सीधा व सटीक तारतम्य स्थापित हो जाता है और सकारात्मकता का वातावरण निर्मित हो जाता है, यही तो ईश्वर की कृपा का परिचायक है। एक साधक ही ईश्वर की इस कृपा का आनन्द ले सकता है और साथ ही निरन्तर कृपापात्र बने हुए सम्पूर्ण मानव जाति को ईश्वर की असीम कृपा से लाभान्वित कर सकता है। ईश्वर की प्रार्थना ही हमें ध्यान की ओर अग्रसर करती है। परमपूज्य महर्षि महेश योगी जी सदैव कहा करते थे प्रत्येक व्यक्ति के भीतर आध्यात्मिक केन्द्र होता है, आवश्यकता है उसे सुप्त अवस्था से चेतना की ओर ले जाते हुए जीवन के उद्देश्यों को फलीभूत करने की और संकल्प व उसकी पूर्ति की इस यात्रा को सरल व सहज बनाने की नियमित भावातीत ध्यान के अभ्यास से। मानव जीवन परिवर्तनशील है। प्रतिदिन एक आत्मिक और चमत्कारिक जीवन आपकी प्रतीक्षा कर रहा है और इस नए जीवन को प्राप्त करने के लिए स्वयं में परिवर्तन की आवश्यकता है। हमारे शारीरिक, मानसिक और भौतिक जीवन की भी सीमाएं होती हैं और इन्हीं सीमाओं में परिवर्तन करके ही हम जीवन के उच्च स्तर को प्राप्त कर सकते हैं। जीवन की सबसे प्रमुख समस्या तारतम्य की होती है और इसे लय में लाने के लिए अपनी आन्तरिक इन्द्रियों को संयमित करना होगा और यही संयम हमारे जीवन में भी प्रकाश लाएगा और हम साथ ही हमारे आसपास के वातावरण को भी प्रकाशित करने का संकल्प लें क्योंकि यही सामूहिक प्रयास समस्त प्रकृति में दीपावली के समान ज्योतिर्मय होगा।

ब्रह्मचारी गिरीश कुलाधिपति, महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय एवं महानिदेशक, महर्षि विश्व शांति की वैश्विक राजधानी भारत का ब्रह्मस्थान, करौंदी, जिला कटनी (पूर्व में जबलपुर), मध्य प्रदेश

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