परम पूज्य महर्षि महेश योगी जी कहा करते थे कि जो व्यक्ति अपनी अंतरनिहित चेतना को जागृत और उदात्त करने हेतु नित्य प्रति सहजगम्य भावातीत ध्यान करता है वह गीता में योगिराज श्रीकृष्ण प्रणीत वैश्विक आनंद का अंग बन जाता है।
अहिंसा का शाब्दिक अर्थ है कि किसी भी प्राणी को मन, वचन व कर्म से कष्ट नहीं पहुंचाना। महात्मा गांधी ने इस प्रचलित अर्थ को और भी विस्तृत कर दया, करुणा, सद्भाव, सबका कल्याण करना। यह सब कुछ भारतीय वैदिक परम्परा में वर्णित वसुधैव कुटुम्बकम को परिलक्षित करता है। शक्ति व सामर्थ्य होने के पश्चात भी जिसके हृदय में दया हो वह अहिंसक है। उपरोक्त लक्षण भारतीय दर्शन की मूलभावना है। जिस प्रकार धर्म के चार चरण होते हैं । तपस्या, सत्य, दया और दान ठीक इसी के विपरीत अधर्म के भी चार चरण होते हैं असत्य, हिंसा, असंतोष व कलह । सभी प्राणियों में तीन गुण होते हैं सत्व, रज और तम् और समय व स्वयं की चेतना के स्तर में उतार-चढ़ाव से समय पर शरीर, प्राण और मन में उनकी वृद्धि व क्षरण होता है। इसे समझने के लिए ऐसा कह सकते हैं जिस समय हमारा मन, बुद्धि और इन्द्रियां सत्वगुण में स्थिर होकर अपना-अपना काम करने लगती हैं वह समय हमारे लिए सतयुग के समान है। सत्वगुण की प्रधानता के समय मनुष्य ज्ञान व तपस्या से अधिक प्रेम करने लगता है और वहीं जब मनुष्यों की प्रवृत्ति और रुचि अधर्म, अर्थ और लौकिक-परलौकिक सुखभोगों की ओर होती है तथा हमारा शरीर, मन व इन्द्रियां रजोगुण में स्थिर होकर काम करने लगती हैं तो यह मानें कि हम त्रेता युग में वास कर रहे हैं। जिस समय हम लोभ, असंतोष, अभिमान, दम्भ और मत्सर आदि के मद में जीवन-यापन कर रहे हों तो मानें हम द्वापर युग में जीवित हैं। क्योंकि रजोगुण व तमोगुण की मिश्रित प्रधानता द्वापर युग में मिलती है और जीवन में झूठ-कपट, तन्द्रानिन्दा हिंसाविवाद, शोकमोह, भय और दीनता की प्रधानता हो उस समय को तमोगुण प्रधान कलियुग समझना चाहिए जैसा कि श्रीमद् भागवत सुधा सागर में वर्णित है। जीवन की संपूर्णता में योग का विषय वृहद एवं विस्तृत है, पुरातन काल से ही इस ज्ञान के संबंध में महान चिंतन, लेखन व मनन होते रहे हैं और इस प्रकार योग का कोई भी पक्ष अछूता नहीं छूटा है।
योग के मार्ग अनेक हैं, योग में साधन व्यक्तित्व के उन ऊर्जा क्षेत्रों पर आधारित है, जिनके सहारे हम परमात्मा से आत्मा के मिलन का मार्ग खोजते हैं। परमपूज्य महर्षि जी कहते थे कि जो व्यक्तिदृढ़ निश्चयी होकर अपनी चेतना को स्पर्श व जागृत करने का नियमित, निरन्तर अभ्यास करता है वह चेतना में ही वैश्विक आनंद को पा जाता है। गीता में भगवान कृष्ण ने अहिंसा को योग का शक्तिशाली अवयव बताया है किसी भी जीव का वध नहीं करना और किसी को व स्वयं को भी कष्ट नहीं देना ही अहिंसा है। अहिंसा का पालन मन, वचन एवं कर्म के स्तर पर होना चाहिए। वास्तव में निस्वार्थ भाव से कर्म के सन्दर्भ में अहिंसा का सांकेतिक अर्थ वृहद है, न्यायोचित रूप से देव व मानवता की रक्षा के लिए किए गए युद्ध में अथवा समाज में शान्ति व्यवस्था बनाए रखने के लिए शासन द्वारा दिए जाने वाले दंड में, हिंसा नहीं है। अहिंसा कायरता नहीं है। इसके विपरीत यह साहसयुक्त वीरता की धारणा है जिससे जिसके द्वारा जीवों के प्राण लेने या कष्ट देने के कर्म से बचे रहना है। परन्तु न्याय और निस्वार्थ भाव ही इसके आधार हैं। भगवान कृष्ण द्वारा गीता में कही गई इस बात के आधार पर महर्षि ने विश्व के अनेक शहरों में सामूहिक भावातीत ध्यान के माध्यम से वहां की हिंसा व नकारात्मकता के प्रभाव को कम कर यह प्रमाणित किया है कि भावातीत ध्यान ही जीवन में आनंद का माध्यम है और इसको नियमित रूप से अभ्यास करने पर हम स्वयं तो लाभान्वित होते ही साथ ही हमारे चारों ओर के वातावरण को भी हम सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करते हैं और यही तो वसुधैव कुटुम्बकम का सार है कि स्वयं के साथ-साथ संपूर्ण प्रकृति को अपना परिवार मानकर समस्त क्षेत्रों में सुखमय उन्नति की कामना करते हुए प्रयासरत रहना।
ब्रह्मचारी गिरीश
कुलाधिपति, महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय
एवं महानिदेशक, महर्षि विश्व शांति की वैश्विक राजधानी
भारत का ब्रह्मस्थान, करौंदी, जिला कटनी (पूर्व में जबलपुर), मध्य प्रदेश
Comments